In the series of folktales, this time we have a tale of four frogs who wanted to climb the Girnar mountain.This mountain is known for it’s journey of 1000 steps to the temple situated at the peak and one of most challenging hikes on the other side. On this difficult to climb mountain,what made that one frog successful and the other three giving up only half way through? Let’s find out!
लघुकथा
यदि सफलता पानी है तो गूंगे बहरे हो जाओ।
एक बार चार मैंढक गुजरात में स्थित एक ऊँची पहाडी गिरनार (धार्मिक एवं पर्यटक स्थल है) पर जाने के लिए तैयार हुए। बहुत जोश के साथ उन्होंने अपनी यात्रा आरंभ की। फुदक-फुदक कर कुछ मीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ने के बाद उन मेंढकों में से एक मेंढ़क ने गिरनार पर्वत श्रेणी से वापस आ रहे दूसरे लोगों से पूछा ‘भैया, कितनी दुर्गम और कठिन चढ़ाई है?’ उसने कहा ‘बहुत कठिन और थकान भरी चढ़ाई है। तुम्हारे बस की बात नहीं है भैया। अपने घर चले जाओ।’ उस मैंढ़क ने सोचा कि यदि इतनी कठिन और दुर्गम चढ़ाई है तो गिरनार पर्वत चोटी तक मैं नहीं चढ़ पाउंगा और मुझे बीच में से ही वापस लौटना होगा। इसलिए मुझे यहॉं से ही वापस चले जाना चाहिए और वह मेंढक दूसरे मेंढकों से यह कहकर वापस चल दिया कि ‘भाइयो, मेरे बस का नहीं है, इतनी भारी चढ़ाई मैं नहीं चढ़ सकता।’

उस मेंढ़क के वापस चले जाने के बाद शेष बचे तीनों मेढ़क हिम्मत जुटाकर फुदक-फुदक कर गिरनार पर्वत की चोटी की ओर चढ़ने लगे। कुछ मीटर की दूरी पर जाने पर हॉंफने लगे तो किसी पेड़ की शीतल छायां में क्षणिक आराम करने लगे। इतने में गिरनार पर्वत की चोटी पर दर्शन करने के बाद वापस आने वाले पथिक लोग भी वहॉं आ गए। उन तीन मेंढकों में से एक ने वापस आने वाले पथिकों से पूछा, ‘भाई, कितनी दूर है? कैसी चढ़ाई है? क्या हम गिरनार तक पहुँच पाएंगे?’ उन्होंने भी पहले वाले पथिक की तरह बताया कि गिरनार चोटी तक दुर्गम, कठिन और थकानभरी चढ़ाई है। वहॉं तक पहुंचते पहुंचते शरीर बुरी तरह थक जाता है और हिम्मत टूट जाती है। ऐसा सुनकर यह दूसरा मेंढ़क भी हिम्मत हार गया और वह भी दुर्गम और थकानभरी चढ़ाई से डरकर वापस चला गया।
अब चार में से दो ही मैंढक गिरनार पर्वत पर चढ़ने के लिए बचे थे। वे बेचारे थके हारे फुदक फुदक कर ऊपर चढ़ने लगे। पसीनों से तर बतर हो गए। अपनी चढ़ाई का आधे से अधिक भाग चढ़ चुके थे कि एक पेड़ की छाया में बैठकर आराम करने लगे। कुछ देर में ऊपर से कुछ यात्रीगण आ रहे थे, तो एक मैंढक ने पूछा, ‘भाई, अभी कितनी और चढ़ना बाकी है?’ यात्रियों ने तपाक से जवाब दिया, ‘बहुत दुर्गम चढ़ाई है और आप लोग मुश्किल ही चढ़ पाओगे। बहुत कठिन है।’ उस तीसरे मैंढक ने चौथे मैंढ़क की ओर मुख करके कुछ बड़बड़या और तीसरा मैंढ़क भी डरकर वापस चला गया। अब चौथे और अंतिम मैंढ़क की बारी थी कि वो क्या करे? कुछ देर चिंतन करने के बाद वह पूरे मनोयोग और उत्साह से फुदक फुदक कर ऊपर चढ़ने लगा। हर बाधाओं को पार करता हुआ वह अगले दिन गिरनार की चोटी पर चढ़ गया और वहॉं देवी के दर्शन किए। सुकून की सांस ली।

पता है उस मैंढक की हिम्मत कैसे हुई। जी, हॉं बतादूं वो चौथा मैंढ़क गूंगा-बहरा था। उसे ना सुनता था और ना बोल सकता था। यही उसकी सफलता का आधार बना क्योंकि उसने ना किसी की सुनी और ना किसी से कुछ कहा और अपने लक्ष्य पर आगे बढ़ता गया। सच है दोस्तो। अगर जीवन में कोई बड़ा लक्ष्य तय करो तो उस गूंगे बहरे मैंढक की तरह अपने लक्ष्य पर दृष्टि जमाए रखो, किसी की सुने-कहे बगेर निरंतर आगे बढ़ते जाओ। आपकी जीत अवश्य होगी।
इति शुभम।
Storytelling has its own charm in learning and teaching. Native stories make a strong impact, with ease of understanding as they are deep rooted in culture and community. Hindi being my mother tongue never left its space in my heart. I strongly believe that in early childhood teaching in mother tongue is definitely the easiest way to reach to a child’s heart.
Indian folklore has been passed through generations over the centuries, with the words of wisdom which benefit young and old equally. I plan to share these short stories aka folk tales every once in a while to my audience, use them as a warm up activity, lunch break filler, going home time activity or simply read to your own children. Stories have their own magic!

Story credit:
Mr. Dalchand
A Storyteller by heart
If you have come this far you must have liked the post so if you enjoyed this post don’t forget to like, follow, share and comment!
GIRNAR




