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Folktales -6

Whatever you want to become in life? Patience and wisdom will always lead your path!

A short story to depict the learning from India’s rich yet simple to understand treasure of stories!

जीवन में जो कुछ भी बनना है?

धैर्य और समझदारी की आवश्यकता हमेशा होती है।

एक बार एक नवयुवक इस भ्रम में पड़ गया कि उसे जीवन में क्या करना चाहिए। उसे यह नहीं सूझ रहा था कि क्या करें, कहां जाए ? ऐसे अनेक सवालों के भार से वह अपने आप को बहुत कमजोर समझ रहा था। भ्रमित और बोझिल मन के आगे लाचार था। जब कुछ भी नहीं कह कर पाया तो उसने सोचा चलो अपनी दुविधा और इस भ्रम को अपने गांव के पास आश्रम के साधु को बताया जाए। ऐसा तय करके वह नवयुवक गांव के पास वाले आश्रम में तपस्या कर रहे साधु महाराज के पास गया। वहां जाकर उस नवयुवक ने बहुत विनम्रता से साधु महाराज को दंडवत प्रणाम किया और अनमना होकर होकर बैठ गया। सरल हृदय साधु महाराज ने उस नवयुवक से पूछा, ‘बेटे विचलित से लग रहे हो, क्या बात है। इस उम्र में इतने निराश और व्यथित क्यों हो?’ वह नवयुवक बोला “साधु महाराज, “मैं इस भ्रम में हूं कि मुझे क्या बनना चाहिए। निर्णय नहीं कर पा रहा हूं कि गृहस्थ बनूं या साधु-संत। कुछ भी निर्णय नहीं हो पा रहा है। मुझे कोई रास्ता दिखाओ।” साधु ने पूरे मन से उस नवयुवक की बात सुनी और बोले “बेटा, तुम कल 11:00 बजे मेरे पास आ जाना। हम दोनों मिलकर इस समस्या का समाधान ढूंढ लेंगे।”

 A young man

साधु महाराज की बात सुनकर नवयुवक अपने घर चला गया और अगले दिन जल्दी ही ठीक 11:00 बजे प्रसन्न मन से साधु महाराज के पास पहुंचा कि आज उसकी समस्या का समाधान हो जाएगा। साधु महाराज उसकी प्रतीक्षा ही कर रहे थे। उसके आते ही वह उसे साथ लेकर कुछ दूर एक ऊंची पहाड़ी पर कुटिया में तपस्या कर रहे अपने गुरु के पास ले गए। जैसे ही उस पहाड़ी की तलहटी में पहुंचे तो गांव के उस साधु ने नवयुवक से कहा, “बेटा, इस पहाड़ी पर कुटिया में मेरे 80 वर्ष के गुरुदेव तपस्या कर रहे गेन। तू उनको जोर से आवाज लगाकर नीचे बुलाना और जब वे इस पहाड़ी से नीचे तुम्हारे पास आ जाएं तो तुम कहना, “क्षमा करें गुरुदेव। मैंने तो ऐसे ही आपको दर्शन के लिए बुलाया है। आप वापस जा सकते हैं।” साधु महाराज ने नवयुवक को कहा कि ऐसा तुम तीन बार करना। वे नाराज नहीं होते।”

इतना कहकर वह साधु महाराज पास ही एक झाड़ी की ओट में छिप कर बैठ गए। अब नवयुवक ने वैसा ही किया, जैसा कहा गया था। इस पर वे 80 वर्ष के वृद्ध संत पहाड़ी से नीचे आए और नवयुवक से बोले, “कहो बेटा, क्या परेशानी है।” उस नवयुवक ने कहा, “महाराज मैंने तो बस ऐसे ही आपको दर्शन करने के लिए बुला लिया। क्षमा करें, आप वापस जा सकते हैं।” संत बोले, कोई बात नहीं, प्रसन्न रहो।” इतना कहकर हुए 80 वर्ष के संत भरी दुपहरी में पसीने पसीने होकर वापस पहाड़ी पर अपनी कुटिया में चले गए। साधु महाराज के कहे अनुसार उस नवयुवक ने उस 80 वर्ष के संत को दो बार और नीचे बुलाया और वह सरल और सहज हृदय के संत उस नवयुवक को अज्ञानी समझकर बड़े कष्ट पाकर भी पहाड़ी पर अपनी कुटिया से बार बार आए और चले गए। ऐसा करते उस नवयुवक का दिन बीत गया।

कुछ देर में साधु महाराज आए और बोले, आओ गांव चलें। दोनों गांव चले गए। साधु महाराज ने उस नवयुवक को अगले दिन फिर 11:00 बजे बुलाया

An Indian saint

अगले दिन वह नवयुवक फिर ठीक समय पर साधु महाराज के पास आ गया और साधु महाराज उसे फिर अपने साथ लेकर गांव के एक बूढ़े गृहस्थ के पास ले गए वहां जाकर बैठ गए। वह गृहस्थी कोई पुस्तक पढ़ रहे थे कि अचानक अपनी पत्नी से बोले, “भाग्यवान सुनो, मुझे भरी दुपहरी में नहीं दिख रहा है। दीया जला कर लाओ, अंधियारा हो गया है। उस ग्रहस्थी की पत्नी आज्ञाकारी थी। बोली, “जी, अभी जला कर लाती हूं और वह तुरंत दीपक जला कर ले आई। गृहस्थ ने कहा अंधियारा मिट गया। इसे वापस ले जाओ।” अपने घर दो अतिथि आए हैं। भोजन बना लो, उस गृहस्थ की पत्नी ने बिना कोई प्रश्न किए भोजन बनाया परंतु सब्जी में नमक डालना भूल गई।

जब तीनों ने मिलकर भोजन करना आरंभ किया तो पता चला कि उनकी पत्नी भोजन में नमक डालना भूल गई है। वो गृहस्थी तुरंत बोले, “वाह! क्या स्वादिष्ट सब्जी बनी है। नमक मिर्च एकदम सही मात्रा में डाले गए हैं।” इतना सुनकर इन साधु और नवयुवक दोनों ने चुपचाप भोजन समाप्त कर लिया। साधु महाराज ने उस ग्रहस्थी से विदा ली और उस नवयुवक को साथ लेकर आश्रम पर आ गए।
अब साधु महाराज बोले, “बेटा, अगर साधु बनना है तो मेरे गुरु जैसा बनना जिनको 80 वर्ष की उम्र में भी आपने तीन बार पहाड़ी से नीचे बुलाया और वह शांत रहे क्रोध नहीं किया, सरल बने रहे, आपकी बात मानते गए, आपको आशीर्वाद देते रहे।और यदि गृहस्थ बनना है तो उस गृहस्थी की तरह बनना जिन्होंने भरी दुपहरी में अपनी पत्नी को दीपक जलाने के लिए कहा तो उनकी पत्नी बिना कोई प्रश्न किए दीपक जला कर ले आई और बाद में उनकी पत्नी से सब्जी में नमक नहीं डालने की भूल हो गई तो उस गृहस्थी ने नमक की भूल का सुधार किस प्रकार किया कि “कितना स्वादिष्ट भोजन बनाया है।”

lighted candle /Diya

जो भी बनना है उसमें इस प्रकार के धैर्य और समझदारी की आवश्यकता होती है। अब तुम अपनी योग्यता स्वम तय कर लो।
इति शुभम।🌹🙏

Story credit:

Mr. Dalchand

A Storyteller by heart

If you have come this far you must have liked the post so if you enjoyed this post don’t forget to like, follow, share and comment!

Storytelling has its own charm in learning and teaching. Native stories make a strong impact, with ease of understanding as they are deep rooted in culture and community. Hindi being my mother tongue never left its space in my heart. I strongly believe that in early childhood teaching in mother tongue is definitely the easiest way to reach to a child’s heart.
Indian folklore has been passed through generations over the centuries, with the words of wisdom which benefit young and old equally. I plan to share these short stories aka folk tales every once in a while to my audience, use them as a warm up activity, lunch break filler, going home time activity or simply read to your own children. Stories have their own magic!
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Folktales-3

Another Gem in Indian folklore, How important life lessons can be learnt from ancient Indian stories of kings and queens……. Their experiences our learning….

लघुकथा
“जो करना है स्वयं करो, दूसरों के भरोसे मत रहो।”

एक बार जोधपुर में जसवंत सिंह जी नाम के महाराजा थे। वे योगिक क्रियाओं में दक्ष थे।प्रतिदिन घंटों योगाभ्यास करते थे। समाधि जैसी गुप्त साधना भी भलीभांति जानते थे। एक दिन उनके मन में आया कि उनके निकट सहयोगियों की वफादारी का पता लगाया जाए। तो उन्होंने एक तरकीब निकाली।

Jodhpur Maharaj Jaswant singh

महाराज ने अपने परम विश्वसनीय लोगों को बुलाया और कहा ” मेरे मन में एक इच्छा है, आप पूरी करोगे?”
उन्होंने एक स्वर में कहा “आपके के लिए हम अपने प्राण भी देने को तैयार हैं।” महाराजा बोले ‘मुझे तुम्हारा जीवन नहीं चाहिए, वह तो हम सबको ईश्वर ने दिया है, वो ही जीवन वापस लेने हकदार हैं।’मेरी तो सिर्फ इतनी सी इच्छा है कि जब मैं मर जाऊं, तो कम से कम मेरे शरीर पर धारण किए हुए आभूषण और हीरे-जवाहरात दीनहीन, गरीबों में बाँट देना। मंदिरों, आश्रमों में दान दे देना। चाहें तो आप लोग राजकोष में से और धन ले सकते हैं, पर मेरी अंतिम इच्छा अवश्य पूरी करना।’ ये सुनकर राजा के प्रधान मंत्री ने आश्वासन दिया की महाराज आपकी इच्छा अवश्य पूरी की जायेगी।साल दो साल बाद ये बात सब भूल गए। अब महाराजा ने अपने सभी निष्ठावान मंत्रियों की परीक्षा लेने की ठानी।

योग विद्या के जानकार होने के कारण वे समाधि लगा सकते थे।समाधि की हालत में शरीर बाहर से मृत दिखता है, नाड़ियां बहुत मंद चलती हैं, श्वांस रुक सा जाता है परंतु समाधि लगाने वाला ऐसा योगी सब कुछ देख-सुन सकता है।

एक दिन महाराजा ने पेट दर्द का बहाना किया और लेट गए, समाधि लगा ली। सभी मंत्री गण उनके चारों ओर इकट्ठा हो गए। उन्होंने सोचा महाराज अब मारने वाले हैं, इसलिए उन्हें भूमि पर उतार लिया। मंत्री ने अपने साथियों से पूछा “इनके शरीर के आभूषणों आदि का क्या किया जाये।” उन्होंने महाराज की अंतिम इच्छा के बारे में बताया कि महाराज तो इन आभूषणों को गरीबों में बांटना चाहते थे। मंदिरों और आश्रमों को दान देना चाहते थे। ये सुनकर महाराज का प्रधानमंत्री बोला “तुमने भी क्या बात कही है। महाराज तो मूर्ख और गधे होते हैं। अब हम राजा हैं। हम जो चाहेंगे, वो ही होगा।”

महाराजा की हाँ में हाँ मिलानी पड़ती है और महाराजा को भरोसा दिलाना पड़ता है कि सब कुछ उनकी इच्छानुसार ही होगा।” यहाँ सुनकर महाराज के कुछ वफ़ादार मंत्री बोले “नहीं, महाराजा की अंतिम इच्छा पूरी करनी होगी। हमने उनको वचन दिया था।” इस पर प्रधान मंत्री पलटते हुए बोले “अरे, हम इन आभूषणों के जैसे ही नकली आभूषण बनवाकर गरीबों में बांट देते हैं। इससे महाराजा को दिया वचन भी पूरा हो जायेगा और हम सम्पति भी प्राप्त कर सकेंगे। “इतना कहकर प्रधान मंत्री ने नकली गहने बनाने वाले को बुलवाया। ठीक इसी समय महाराजा ने अपनी समाधि तोड़ दी और ओम की आवाज के साथ उठ खड़े हुए।

महाराज ने अब तक हुआ सारा घटनाक्रम देख-सुन चुके थे। प्रधान मंत्री भयभीत होकर कांपने लगे परंतु जल्दी ही संभलकर चिल्लाने लगे “हमारे महाराज जीवित हैं, भगवान का लाख लाख धन्यवाद।” महाराज की जय जय कार करने लगे।तब महांराजा बोले ” ये सब नाटक बंद करो, मुझे आप सब लोगों की वफादारी का पता चल गया है।”
फिर महाराजा ने गरीबों, मंदिरों,आश्रमों को पर्याप्त धन और भूमि दान दी। आज भी जोधपुर के प्राचीन मंदिरों और आश्रमों के पास पर्याप्त धन है।

इस कथा के कई अर्थ हैं। महाराजा को समाधि अवस्था में अपने मंत्रियों की वफ़ादारी का पता चल गया। दूसरे जब सत्ता, संपत्ति और धन का प्रश्न उठता है तो लोगों का असली चेहरा सामने आ जाता है। इसलिए हम जो भी करना चाहते हैं, स्वयं कर डालें, दूसरों के भरोसे नहीं रहें।


इति शुभम।

Story credit:

Mr. Dalchand

A Storyteller by heart

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Jaswant Thada monument in Jodhpur
Jaswant Thada monument in Jodhpur
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Folktales: 2

In the series of folktales, this time we have a tale of four frogs who wanted to climb the Girnar mountain.This mountain is known for it’s journey of 1000 steps to the temple situated at the peak and one of most challenging hikes on the other side. On this difficult to climb mountain,what made that one frog successful and the other three giving up only half way through? Let’s find out!

 लघुकथा

यदि सफलता पानी है तो गूंगे बहरे हो जाओ।

एक बार चार मैंढक गुजरात में स्थित एक ऊँची पहाडी गिरनार (धार्मिक एवं पर्यटक स्‍थल है) पर जाने के लिए तैयार हुए। बहुत जोश के साथ उन्‍होंने अपनी यात्रा आरंभ की। फुदक-फुदक कर कुछ मीटर की सीधी चढ़ाई चढ़ने के बाद उन मेंढकों में से एक मेंढ़क ने गिरनार पर्वत श्रेणी से वापस आ रहे दूसरे लोगों से पूछा ‘भैया, कितनी दुर्गम और कठिन चढ़ाई है?’ उसने कहा ‘बहुत कठिन और थकान भरी चढ़ाई है। तुम्‍हारे बस की बात नहीं है भैया। अपने घर चले जाओ।’ उस मैंढ़क ने सोचा कि यदि इतनी कठिन और दुर्गम चढ़ाई है तो गिरनार पर्वत चोटी तक मैं नहीं चढ़ पाउंगा और मुझे बीच में से ही वापस लौटना होगा। इसलिए मुझे यहॉं से ही वापस चले जाना चाहिए और वह मेंढक दूसरे मेंढकों से यह कहकर वापस चल दिया कि ‘भाइयो, मेरे बस का नहीं है, इतनी भारी चढ़ाई मैं नहीं चढ़ सकता।’ 

उस मेंढ़क के वापस चले जाने के बाद शेष बचे तीनों मेढ़क हिम्‍मत जुटाकर फुदक-फुदक कर गिरनार पर्वत की चोटी की ओर चढ़ने लगे। कुछ मीटर की दूरी पर जाने पर हॉंफने लगे तो किसी पेड़ की शीतल छायां में क्षणिक आराम करने लगे। इतने में गिरनार पर्वत की चोटी पर दर्शन करने के बाद वापस आने वाले पथिक लोग भी वहॉं आ गए। उन तीन मेंढकों में से एक ने वापस आने वाले पथिकों से पूछा, ‘भाई, कितनी दूर है? कैसी चढ़ाई है? क्‍या हम गिरनार तक पहुँच पाएंगे?’ उन्‍होंने भी पहले वाले पथिक की तरह बताया कि गिरनार चोटी तक दुर्गम, कठिन और थकानभरी चढ़ाई है। वहॉं तक पहुंचते पहुंचते शरीर बुरी तरह थक जाता है और हिम्‍मत टूट जाती है। ऐसा सुनकर यह दूसरा मेंढ़क भी हिम्‍मत हार गया और वह भी दुर्गम और थकानभरी चढ़ाई से डरकर वापस चला गया।

अब चार में से दो ही मैंढक गिरनार पर्वत पर चढ़ने के लिए बचे थे। वे बेचारे थके हारे फुदक फुदक कर ऊपर चढ़ने लगे। पसीनों से तर बतर हो गए। अपनी चढ़ाई का आधे से अधिक भाग चढ़ चुके थे कि एक पेड़ की छाया में बैठकर आराम करने लगे। कुछ देर में ऊपर से कुछ या‍त्रीगण आ रहे थे, तो एक मैंढक ने पूछा, ‘भाई, अभी कितनी और चढ़ना बाकी है?’  यात्रियों ने तपाक से जवाब दिया, ‘बहुत दुर्गम चढ़ाई है और आप लोग मुश्‍किल ही चढ़ पाओगे। बहुत कठिन है।’ उस तीसरे मैंढक ने चौथे मैंढ़क की ओर मुख करके कुछ बड़बड़या और तीसरा मैंढ़क भी डरकर वापस चला गया।  अब चौथे और अंतिम मैंढ़क की बारी थी कि वो क्‍या करे? कुछ देर चिंतन करने के बाद वह पूरे मनोयोग और उत्‍साह से फुदक फुदक कर ऊपर चढ़ने लगा। हर बाधाओं को पार करता हुआ वह अगले दिन गिरनार की चोटी पर चढ़ गया और वहॉं देवी के दर्शन किए। सुकून की सांस ली। 

पता है उस मैंढक की हिम्‍मत कैसे हुई। जी, हॉं बतादूं वो चौथा मैंढ़क गूंगा-बहरा था। उसे ना सुनता था और ना बोल सकता था। यही उसकी सफलता का आधार बना क्‍योंकि उसने ना किसी की सुनी और ना किसी से कुछ कहा और अपने लक्ष्‍य पर आगे बढ़ता गया। सच है दोस्‍तो। अगर जीवन में कोई बड़ा लक्ष्‍य तय करो तो उस गूंगे बहरे मैंढक की तरह अपने लक्ष्‍य पर दृष्टि जमाए रखो, किसी की सुने-कहे बगेर निरंतर आगे बढ़ते जाओ। आपकी जीत अवश्‍य होगी।

इति शुभम। 

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GIRNAR

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Folktales

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लघु कथा


“बेकदारांदी दोस्ती, तू क्यों लाई हँस।”

एक बार एक कौवा उड़ते उड़ते एक झील के किनारे आया जहाँ उसने एक हँस को उस झील के निर्मल जल में मोती चुगते हुए देखा और उससे दोस्ती करने की इच्‍छा जताई। हँस का हृदय निर्मल होता है, उसने तुरंत उस कौवे से दोस्‍ती करने की हाँ कर दी। कुछ दिन बीते, दोनों रोजाना घंटों खूब बातें करते करते और हँसते-खेलते अच्‍छे दिन गुजारने लगे। कौवे को अब अपने घर की याद सताने लगी और उसने अपने दोस्‍त हँस को कहा ‘मित्र हँस अब मैं अपने देश जाना चाहता हूँ। कभी तू भी मेरे देश आना।‘ इस पर हँस ने कौवे का निमंत्रण स्वीकार कर लिया और उसके देश आने की हाँ भर दी। 

दिन-पर-दिन बीतने लगे। कुछ दिन बाद हँस अपने मित्र कौवे से मिलने के लिए उड़ते-उड़ते उस देश चला गया जहाँ कौवा रहता था। कौवे ने अपने देश आए हँस को तुरंत पहचान लिया। उसे देख कर बहुत प्रसन्नता व्यक्त की। उसके मन में यह दुराभाव था कि वह हँस का मांस खाए। उसने योजना बनाई कि अब ये मैं हँस मेरे देश में है और मुझे अपना विश्‍वासपात्र दोस्‍त मानता है इसलिए मैं इसका मांस खा सकता हूँ। फिर उसने अपने अन्य साथियों के साथ मिलकर हँस को मार डाला और सभी कौव मिलकर उसे नोच-नोच कर खा गए। बेचारा भोलाभाला निर्मल हृदय का हँस गलत जगह मित्रता करके अपने प्राण गवां बैठा। 

समय के अंतराल में जब हँस वापस नहीं आया तो झील के किनारे रहने वाली हँसिनी ने सोचा चलो मैं अपने हँस को ढूंढ कर लाती हूँ। व्‍यथित मन से उड़ती-उड़ती वो भी पूछते हुए उसी कौव देश चली गई जो उसके हॅंस का दोस्‍त था। उसने वहॉं जाकर देखा कि उसके हँस के पंख और हड्डियां जगह-जगह बिखरे पड़े  थे। हंसिनी ये सब देखकर टूट गई और अत्‍यंत दु:खी हुई और उसके मुख से बरबस निकल गया :

 ‘’बेकदरांदी दोस्ती तू क्यों लाई हँस, गलियां गलियां तेरी हड्डियां रूड़दियाँ, चप्पे-चप्पे पंख’’

अर्थात्

ओ मेरे हँस, तूने बेकदर कौवे से दोस्‍ती क्यों की। तेरे भोले और निर्मल स्‍वभाव के कारण तूने दोस्‍त की मंशा नहीं पहचानी और इस कारण आज गली-गली में तेरी हड्डियां और पंख बिखरे पड़े हैं।   सच है बेकदर इंसान से दोस्‍ती नहीं करनी चाहिए। अपने समान विचार और संस्‍कार वालों से ही दोस्‍ती अच्‍छी होती है, नहीं तो उस भोले, सीधे-सादे हँस की तरह जीवन की हानि भी हो सकती है। कहा भी है – ‘सिंगल पशु से दस कदम और कुत्‍ते से आठ। दुर्जन की संगत बुरी, कदम बचे एक सौ साठ।‘ यानि सींग वाले पशु से दस कदम, कुत्‍ते से आठ कदम और दुर्जन व्‍यक्ति से एक सौ साठ कदम दूर रहना चाहिए। उसकी संगति नहीं करनी चाहिए।

Story Credits:

Mr. Dalchand

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